उत्तराखंड को वीरों की भूमि यूं ही नहीं कहा जाता। यहा के लोकगीतों में शूरवीरों की जिस वीर गाथाओं का जिक्र मिलता है ।यह के किस्से देश-विदेश तक फैले हैं। वही देश की सुरक्षा और सम्मान के लिए देवभूमि के वीर सपूत हमेशा ही आगे रहे हैं। यहां की मिट्टी ने देश को न जाने ऐसे कितने जांबाज दिए है . आज हम आपको रुबरु काराएंगे एक ऐसे वीर सपूत से जिसने अकेले ही 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था.
72 घंटे तक चीनियों से लोहा लिया
साल 19 सो बासठ में भारत-चीन युद्ध चला था। इस युद्ध में एक सैनिक ऐसा था जिसने अकेले 72 घंटे तक चीनियों से लोहा लिया हुआ था। जी हा हम बात कर रहे हैं गढ़वाल राइफल्स के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की। जिन्हे महावीर चक्र से सम्मानित किया गया है।
उत्तराखंड की मट्टी में हुआ जन्म
इस वीर सपूत का जन्म उत्तराखंड की मट्टी में हुआ.जसवंत सिंह का जन्म उत्तराखंड के पौड़ी जनपद के बीरोंखाल में हुआ। 19 अगस्त 1960 को वह 19 साल की आयु में गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए। उन्होंने 14 सितंबर 1961 में अपनी ट्रेनिंग पूरी की।जिसके बाद उनकी तैनाती सीधे अरुणाचल प्रदेश में चीन सीमा पर हुई।
पढ़े पूरी वीरगाथा
चीन सीमा पर नवंबर 1962 को चौथी गढ़वाल राइफल्स को नूरानांग ब्रिज की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया। जमा देने वाली ठंड और दुर्गम पथरीले इलाके में चीनी सैनिक भारत की जमीन पर कब्जा करते हुए हिमालय की सीमा को पार करके आगे बढ़ रहे थे। चीनी सैनिक अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे तक पहुंच गए थे। भारतीय सैनिक भी चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला कर रहे थे। चीनी सैनिकों से भारतीय थल सेना की गढ़वाल राइफल्स लोहा ले रही थी। गढ़वाल राइफल्स जसवंत सिंह की बटालियन थी। लड़ाई के बीच में ही संसाधन और जवानों की कमी का हवाला देते हुए बटालियन को वापस बुला लिया गया। लेकिन लेकिन इसमें शामिल जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाई नहीं लौटे। ये तीनों सैनिक एक बंकर से गोलीबारी कर रही चीनी मशीनगन को छुड़ाना चाहते थे।
-तीनों जवान चट्टानों और झाड़ियों में छिपकर भारी गोलीबारी से बचते हुए चीनी सेना के बंकर के करीब जा पहुंचे और महज कुछ ही दूरी से हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए दुश्मन सेना के कई सैनिकों को मारकर मशीनगन छीन लाए। इससे पूरी लड़ाई की दिशा ही बदल गई और चीन का अरुणाचल प्रदेश को जीतने का सपना पूरा नहीं हो सका।
– हालांकि, इस गोलीबारी में त्रिलोकी और गोपाल मारे गए। वहीं, जसवंत को दुश्मन सेना ने घेर लिया और उनका सिर काटकर ले गए। इसके बाद 20 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इस युद्ध में 300 चीनी सैनिक मारे गए थे …युद्ध के बाद चीनी सेना ने उनके सिर को लौटा दिया। अकेले दम पर चीनी सेना को टक्कर देने के उनके बहादुरी भरे कारनामों से चीनी सेना भी प्रभावित हुई और भारत को पीतल की बनी रावत की प्रतिमा भेंट की।
उनको मृत्यु के बाद भी प्रमोशन मिलता है। राइफलमैन के पद से वह प्रमोशन पाकर मेजर बने । उनकी ओर से उनके घर के लोग छुट्टी का आवेदन देते हैं और छुट्टी मिलने पर सेना के जवान पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनके चित्र को उनके गांव ले जाते हैं। छुट्टी समाप्त होने पर उनके चित्र को वापस जसवंत गढ़ ले जाया जाता है।
सेना के जवानों का मानना है कि अब भी जसवंत सिंह की आत्मा चौकी की रक्षा करती है। उन लोगों का कहना है कि वह भारतीय सैनिकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। अगर कोई सैनिक ड्यूटी के दौरान सो जाता है तो वह उनको जगा देते हैं। उनके नाम के आगे शहीद नहीं लगाया जाता है और यह माना जाता है कि वह ड्यूटी पर हमेशा मौजूद रहते है उत्तराखंड की माटी में ऐसे कई वीर सपूतों ने जन्म लिया, जिन्होने अपने देश की रक्षा के खातिर अपनी जान न्यौछावर कर दी लेकिन भारत मां पर आंच नहीं आने , ऐसे वीर सपूतों को हम सलाम करते है
Add Comment